अंग्रेजी में बोलने-सोचने वाले पांच-दस करोड़ लोग ही उद्योग-व्यापार, बाजार और कॉरपोरेट दुनिया की बागडोर संभाले हुए हैं। लेकिन यह एक औपनिवेशिक तलछट है जो बाजार व लोकतांत्रिक चाहतों के विस्तार के साथ एक दिन बहुरंगी, देशज भारतीयता में समाहित हो जाएगी। आज का मध्यम वर्ग अपने भोग विलास में अपने संस्कृति, सभ्यता और भाषा को भूलता जा रहा है. गरीबी और अमीरी की खाई बढती जा रही है. क्षेत्रीय भाषाये जहां देश में वित्तीय बाजार की पहुंच को बढ़ाएगा, वहीं महज उपभोक्ता, अन्नदाता, कच्चे माल व पुर्जों के निर्माता की अभिशप्त स्थिति से निकालकर हिंदी समाज को उद्यशीलता के आत्मविश्वास से भरने की कोशिश भी करेगा।
हमें यकीन है कि हिंदी समाज में वो सामर्थ्य है, यहां ऐसे लोग हैं जो अंदर-ही-अंदर विराट सपनों को संजोए हुए हैं, लेकिन मौका व मंच न मिल पाने के कारण कहीं किसी कोने में दुबके पड़े हैं। उन्हें किसी मौके व मंच का इंतजार है। यकीनन हिंदी समाज के खंडित आत्मविश्वास को लौटाना, यहां घर कर चुकी परम संतोषी पलायनवादी मानसिकता को तोड़ना, जनमानस में छाए दार्शनिक खोखलेपन को नए सिरे से भरना, उसे हर तरह के ज्ञान से लबरेज करना पहाड़ को ठेलने जैसा मुश्किल काम है। लेकिन हमारा इतिहास बताता है कि हम हमेशा ऐसे संधिकाल से, संक्रमण के ऐसे दौर से विजयी होकर निकले हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह यानी 2022 तक अगर भारत को दुनिया की प्रमुख ताकत बनना है तो हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलगु, मलयाली, मराठी, गुजराती से लेकर हर क्षेत्रीय समाज को कम से कम ज्ञान व सूचनाओं के मामले में प्रभुतासंपन्न बनाना होगा। नहीं तो तमाम बड़े-बड़े राष्ट्रीय ख्बाव महज सब्जबाग बनकर रह जाएंगे।