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Monday, October 29, 2012

समाधियाँ


कर्ण – प्रिय होते है नारे
आँखों में भर देते है सपने
यथार्थ और सपने
दो किनारे है नदी के
थाली के पानी का चाँद
सुन्दर होता है, प्रकाशमान  नहीं
जिस तरह सपने में प्राप्त धन से
सुधारी नहीं जा सकती स्थिति
उसी तरह
खून देनेवालों को
नहीं मिली आज़ादी
महान कहने से
नहीं बना देश महान
जय जवान जय किसान के जाप से
अमर शहीदों के प्रियजनों के
नहीं थामे बहते आँसू
हालत नहीं बदले किसानो के
रूका नहीं सिलसिला आत्महत्याओं का
शोर मचने से
नहीं हुआ फीलगुड
समाजवाद और सामाजिक न्याय के उद्घोष
बुधिया – जुम्मन के जीवन – स्तर को
नहीं बदल सके
उसी तरह
बेअमल घोषणाओं से
विकास नहीं होगा
बढ़ेगी घोषणाओं की संख्या
लंबी होगी फेहरिस्त
कूड़े के ढेर की तरह
गली – मोहल्ले में नज़र आयेंगी
शिलान्यासों की समाधियाँ

खौफ़


चप्पे चप्पे पर
गुप्त यांत्रिक आँखे जड़ने की
परन्तु मजबूरी है राजा की
हर पल सालता रहता है
खौफ़ बेदखली का
संदेह सत्ता-परिवर्तन का
लगा रहता है खटका
चुप, चालाकी या छल से
राजमहल में घुसकर कोई
बैठ न जाये तख्ते ताउस पर
तन्हाई में अक्सर
सोचता है राजा
सुख-सागर में
होते है चिंता – भंवर
राजमहल में भी
दाखिल हो जाता है
अंग रक्षक की तरह ‘खौफ़’

जननी का जन्म


जननी का जन्म
शहनाई में सिसकियो की धुन
उल्लास में मातम की गंध
बेमानी सांत्वना, सब्र, आस्था
पुत्र प्राप्ति का वरदानईश्वर के घर में देर है
अंधेर नहीं!
तूफ़ान में टिमटिमाती लौ
टू कब तक जूझेगी?
निहत्थे अकेलीसूरज डूब रहा है!